मूंदकर ऑंखों
मे सपने फिरोनी कि जब भी मैं कोशिश करता हूं कभी...
नाजायज अफसाने
सिमटे अपनेही घुंगराले इरादों में,
उलझे, सहमें
दस्तक दे जाते हैं काफिलों के बंद दरवाजों पर !
अपनीही गिरफ्त
में मशगुल अरमान...
ना उन्हे
सपनों मे दिलचस्पी ना दस्तक की कोई किमत !
कभी सोचकर
जमीं से नाता तोडे निकल पडता हूं,
समंदर में नयी
अपनीही एक मुकम्मल दुनिया बनाने ।
सांझे खयाल और
सांझा कारवॉं पीठपर ढोये...
एक हाथ से
चप्पू चलाने पर मजबूर,
कभी झोंके की
ओर तो कभी हवा से साझेदारी बनाए,
उल्टी दिशा
में, सभी से दुश्मनी मोल लेते...
आजमाने की
कोशिश तो की है मैने भी कभी !
एक पल सोचा था
कभी की खुदसे ही लड पडूं...
अपनीही
खामीयां आंखों मे लिए...
समंदर किनारे
रेत पर लगाई जाए दौड,
अंदरुनी खुदी
से सवाल लडाते और बेझिझक गीर पडे,
बेहया सपनों
को सिरहाने लिए !
एक कशिश है मन
में अंदर कहीं छुपी...
एक आवाज है जो
दिल की धडकन से परे है,
मगर ना सुनाई
देती है और ना ही आगाज है उसका कहीं !
कई गोते लगाए
है मैने...
कई नाकाम
कोशिशें भी मुकम्मल कि है मैने !
कई अफसाने
पढें..लिखें भी है मैने । लेकीन,
अफसानों की
आफरा-तफरी में शायदही मिल पाता है अफसना मेरा ।
कई दिनों बाद
जब भी कभी मिल जाते हैं...
बोतल बंद
अपसाने समंदर किनारे रेत में...
बडी घीन सी
आती है, मेरेही लिखें अलफाजों से ।
और जिल्लत भरी
गुहार लगाते मदद के लिए अल्फाज मेरे...
तबियत से एक दफा
भी नाम नहीं लेते मेरा !
वैसे अफसानों
की कमी नहीं ये काफर दोस्त मेरे...
एक वफादार
अल्फाज की तलाश लेकिन जारी है मेरी !
सुना है उसी
समंदर में पलती है एक सोन-मछली ।
अचरज की बात
है, कईयों गोतों के बाद भी...
कभी कैसे ना
दिखी वो सोन-मछली किसी को भी एकबार ?
पुराने
तर्रर्र जनाजों समेत डुबे कई अफसानों को धुंडते...
गोताखोरी का
धंदा बनाये बैठे कर्मठ बनियों से,
समंदर पर बनी
हलकीसी खरोंच भी पता होती है...
क्या पता उसी
का कोई अच्छा दाम मिल जाए !
ऐसें में
सोन-मछली का पनपना, उन्ही बनियों के नाक के नीचे...
आज के दिनों
में तारिफ-ए-काबिल कहतें हैं सभी !
लेकिन ठानी तो
मैने भी है...
उसी सोन-मछली को
गोता लगाए, करीब से जी भर देख लूंगा कभी ।
दोस्त मेरे,
जिंदगी का तानाबाना बुनते-बुनते आजकल थकान सी भी होती है,
दोस्त मेरे,
अपने ही सपनों को बार बार फिरोने में मुश्किल भी होती है ।
क्या पता थकान
भरे हातों से कब, कौन सी बुनाई चूक जाए ?
क्या पता कब,
कैसे अपनी ही सुई की नोक अपने ही सपनों में कब चूभ जाए ?
तो क्या बुनाई
ही ना करे ?
और ना ही
सपनें फिरोएं ?
आज कल तो
आसमां भी पराया लगता है...
जमीं भी ना
अपनी, सगी लगती है...!
हवाएं तो
पहलेसेही हुकमदार, दौड लगाती रहती है...
और रात भी आज कल
सिने में खंजर उतारने को मचलती, तैय्यार लगती है !
और इसिलिए,
मूंदकर ऑंखों
मे सपने फिरोनी कि जब भी मैं कोशिश करता हूं कभी...
नाजायज अफसाने
सिमटे अपनेही घुंगराले इरादों में,
उलझे, सहमें
दस्तक दे जाते हैं काफिलों के बंद दरवाजों पर !
अपनीही गिरफ्त
में मशगुल अरमान...
ना उन्हे
सपनों मे दिलचस्पी ना दस्तक की कोई किमत !
-अनुप
COGNIZANCE: All written creative material is the solemn property of “An Anup
Jatratkar Multi-Media Production”. If anyone wanted to use it for his/her own
personal purpose (i.e. short film, projects, blogs, articles, scripts, FB posts
etc.) then, have to take proper permission from, Mr. Anup Jatratkar. If it will
be found that, anyone involved in such activities without prior permission,
then, we are able to take certain charge on him/her.