१.
दोराहें हमेशाही काटतें
हैं रास्ता...
हमेशाही करते हैं बटवारा-
सपनों का, जज्बातों का,
उम्मीदों का...
और तो और, कभी-कभी पस्त कर
देते हैं,
हौसलों को भी...ये नाजायझ
दोराहें !
राही, ये मत समझना...
तुम में कमी है कोई, या
सपनों में जान नही तुम्हारे...!
अपनों के प्यार को, बेडी
समझने की भी गलती-
कभी ना करना, हमराही
मेरे ।
छलावा वो नहीं होता, जो आंखों
को नजर आता है !
बल्की, जिसपर दिमाग यजीं
करे, समझना...
दोराहों का छलावा दूर नहीं
तुमसे !
गिरफ्त में मत आना ये राही
मेरे...
दिल-दिमाग की भी मत
सूनना...!
हावी होंगे जब, जज्बातों
की डोर थामे रखना...
हौसलों की शमा बुझने मत
देना...
सपनों की उम्मीद टुटने मत
देना...!
क्या पता, तुम्हारे सिर्फ
एक कदम का फासला हो,
और पार हो जाओ !
राही,
जिंदही, “क्या पता” और “और”
के बीच का कारवां है,
हमें, तुम्हें, हम सबको बस
पार हो जाना है !
- -अनुप
२.
कमरे में बंद चिडीया को,
जब खुला आसमां मिला तो पता
है क्या हुआ ?
डाल पे बैठे कौऐ ने नीचे
लेटे लोमडी से पुछा !
लोमडी ने बडीही बेजान नजर
से,
कोऐ को देखा और मुंह फेर
सो गया ।
कोआ आसमां की ओर देख,
अपनीही कहानी में मश्गुल
था !
चिडीया की उडान से ही खूष
था ।
उसकी कहानी का अंदाज सून,
ईक चिडीया-जो गुजर रही थी
वहां से..
आकर बैठ गयी डाली पर दुसरे
।
बौखलाये कोऐ को ये मंजूर न
हुआ,
अपनी हद में किसी और का
आना,
उसे गंवारा न हुआ !
उस चिडीया को उडाकर, संतोष
पाया कौआ...
फिरसे अपनी जगह बैठ, गले
को साफ कर,
फिरसे आसमां की ओर देख,
आंखे मूंद कर,
अपनीही कहानी में डूभ गया
!
लेकिन, अब वहां न लोमडी
थी...
ना ही आसमां था और न ही-
आसमां में उडती कोई चिडीया
थी !!
फिर भी बडे चाव से कौआ,
उसी कहानी को दोहराता
रहा...
और आने-जाने वाले हर एक से
पुछता रहा-
“कमरे में बंद चिडीया को,
जब खुला आसमां मिला तो पता
है क्या हुआ ?”
- -अनुप